दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज…
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अभी शुक्रवार, तीन जून की ही बात है. सबको याद होगी, जब दुनियाभर में ‘साइकिल दिवस’ मनाया गया. इसके दो दिन बाद पांच जून को आया ‘पर्यावरण दिवस’. इन दोनों ‘दिनों’ के बीच एक अहम रिश्ता बना हुआ है. जब ये ‘दिन’ इस तरह नहीं मनाए जाते थे न, तब से ही. वह यूं कि दुनिया में शायद साइकिल इकलौती ऐसी इंसानी ईज़ाद है, जिसने धरती, उसके पर्यावरण या इंसानी सेहत को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाया अब तक. यही वज़ह रही कि ये जब से चलना शुरू हुई तो अब रुकी नहीं. चलती ही जा रही है. हालांकि ये सवाल पेचीदा हो सकता है कि आख़िर ये चलना कब से शुरू हुई? या कि ये बाकमाल ईज़ाद आख़िर की किसने?
वैसे, तमाम जानकार बताया करते हैं कि साल 1418 में इटली के इंजीनियर हुए जियोवनी फोंताना. उन्होंने एक चार पहिए का कोई यंत्र बनाया. उसे पैरों से धकेलकर आगे बढ़ाना पड़ता था. फिर 1791 में कोम्त डि सिवरैक उन्होंने दो पहिए वाला लकड़ी का यंत्र बनाया. हालांकि उसमें गड़बड़ी ये थी कि उसका हत्था दाहिनी या बाईं तरफ़ घूमता नहीं था. पैरों से उसे भी धकेलकर चलाना पड़ता था. उठा-उठाकर मोड़ना पड़ता था. मग़र इसके बावज़ूद लोगों ने मौज़-मस्ती के लिए सही, इसे ख़ूब इस्तेमाल किया और 1793 तक इसे नाम भी दे दिया गया ‘वेलोसिफिर’. लेकिन इस सिलसिले में बड़ा काम हुआ 1813 से 1817 के बीच. जर्मनी के कार्ल वॉन द्राएस ने पहले लकड़ी का चार पहिए का यंत्र बनाया. क़रीब-क़रीब वैसा ही जैसा 400 बरस पहले फोंताना ने बनाया था.
अगले तीन-चार सालों तक द्राएस उस यंत्र में सुधार करते रहे. इसके नतीज़े में उन्होंने फिर दो पहिए का कर दिया इसे. पहियों समेत पूरा ढांचा अब भी लकड़ी का ही था. लेकिन इसमें दो ख़ास बातें जुड़ गईं. पहली उन्होंने ऊपर बैठने के लिए एक सीट लगा दी. इस पर बैठकर सवार आसानी से पैरों के जरिए यंत्र को आगे ले जा सकता था. दूसरा- उन्होंने इसमें हत्था इस तरह से लगाया, जो आगे के पहिए को इधर-उधर मोड़ सके. इससे सवार के लिए और ज़्यादा आसानी हो गई. यह सब काम हुआ 1817 में. बताते हैं, द्राएस ने अपने इस यंत्र को जब फ्रांस के शहर पेरिस में प्रदर्शित किया तो लोगों को यह ख़ूब पसंद आया और जल्द ही इसके चर्चे ब्रिटेन तक भी पहुंच गए.
अब यहां एक दिलचस्प किस्सा भी क़ाबिल-ए-ज़िक्र. यूं कहा जाता है कि साल 1815 में इंडोनेशिया के माउंट तंबोरा में ज्वालामुखी फटा था. इतना भयानक कि ज्वालामुखी की राख के बादल धीरे-धीरे पूरी दुनिया के आसमान में फैल गए. इससे सूरज की रोशनी का रास्ता रुका और धरती का तापमान कम हो गया. फसलें ख़राब हो गईं. तमाम जगहों पर भुखमरी के हालात आ बने. इन हालात में इंसानों के साथ जानवरों को भी ज़िंदगी से हाथ धोना पड़ा. ज़ाहिर तौर पर इनमें घोड़े भी मारे गए, जो इंसानों की आवाज़ाही का अहम ज़रिया थे. लिहाज़ा, इस मुश्किल से निज़ात पाने के लिए द्राएस ने अपना लकड़ी का वह दो पहिए का यंत्र बनाया, जिसे उन्होंने नाम दिया ‘द्राएसीन’.
मग़र ‘द्राएसीन’ नाम लोगों की ज़ुबान पर चढ़ा नहीं. जब लकड़ी के उस दो-पहिया यंत्र को ब्रिटेन और फ्रांस के रईस सड़कों के किनारे अपने पैरों से दौड़ाते हुए निकला करते तो देखने वाले कहते, ‘देखो, देखो… बांका घोड़ा जा रहा है.’ अंग्रेजी में ‘डैंडी हॉर्स’ या ‘हॉबी हॉर्स’. इसलिए कि यह शौक पहले रईस ही पाल सकते थे, जो पाले भी थे. उन्होंने इसके लिए ख़ास क़िस्म के क्लब बना लिए थे. उनमें वे अक़्सर अपने ‘बांके-घोड़ों’ की दौड़ का जलसा किया करते. जब-तब शान बताने को पैरों से धकियाते हुए सड़कों के किनारे से निकलते. इससे अक़्सर पैदल चलने वाले राहग़ीरों को दिक्क़त हुआ करती. लिहाज़ा आगे चलकर ‘बांका-घोड़ा’ की लगाम खींच दी गई. रोक लग गई.
इस बीच, ब्रिटेन में डेनिस जॉन्सन नाम के ज़नाब हुए. उन्होंने ‘बांका घोड़ा’ को कुछ और आरामतलब बनाया था. अलबत्ता, आरामतलब तो क्या ही होता क्योंकि क़रीब 23 किलोग्राम के इस ‘काठ के घोड़े’ को धकेलना तो पैरों से ही पड़ता था. बहरहाल, 1862 के साल में फ्रांस के ही नैंसी शहर में पाएर लैलमेंट छोटे बच्चों को लाने-ले जाने के लिए धकेलने वाली गाड़ियां बनाने का काम किया करते थे. कहते हैं, तभी उनकी नज़र किसी ‘बांके घोड़े’ पर पड़ी. पैरों से ‘काठ का घोड़ा’ धकेलते हुए उन्होंने जब देखा तो उन्होंने उसी में पैडल जैसा कुछ लगा दिया, अगले पहिए में. यानी अब सीट पर बैठकर आगे के पहिए में लगे पैडल घुमाते हुए ‘काठ का घोड़ा’ चलाया जा सकता था.
हालांकि यहां भी एक पेंच है क्योंकि क़रीब-करीब 1862 के ही साल में जर्मनी के कार्ल केच नाम के एक ज़नाब ने दावा किया कि असल में ‘काठ के घोड़े’ में पैडल लगाने का काम उन्होंने किया. पर जो भी हो इधर, क़रीब एक साल बाद यानी 1863 में लैलमेंट ‘पैडल वाले काठ के घोड़े’ को लेकर गए पेरिस. वहां एक बड़ा धनी-मानी ख़ानदान हुआ ‘ओलिवर भाईयों’ का. बड़े कारोबारी थे. उनसे लैलमेंट ने इस बारे में ज़िक्र किया तो ‘ओलिवर भाईयों’ को लगा कि इस ईज़ाद से तो अच्छे पैसे बनाए जा सकते हैं. लिहाज़ा उन्होंने लैलमेंट को किया किनारे और पेशे से बड़े लुहार पायर मिचॉक्स को साथ लेकर नए नाम के साथ ‘काठ के घोड़े’ की अब नई कहानी लिखनी शुरू कर दी.
अब यहीं ये जानना भी दिलचस्प होगा, जैसा कहा जाता है, कि लैलमेंट असल में मिचॉक्स के ही में लोहारख़ाने में काम किया करते थे. हालांकि लैलमेंट ने भी हार नहीं मानी और ‘काठ के घोड़े’ में पैडल लगाने का श्रेय (पेटेंट) 1866 में उन्होंने अपने नाम करा लिया. इसके साथ ही वे अमेरिका भी चले गए. अब एक तरफ़ अमेरिका में लैलमेंट के साथ अमेरिकी कारोबारी ‘हैनलॉन भाई’ पैडल वाले काठ के घोड़े में कुछ सुधार कर रहे थे. वहीं दूसरी ओर फ्रांस में मिचॉक्स और ‘ओलिवर भाई’ लगे हुए थे, इसी काम में. हालांकि इस काम में थोड़ी जल्दी क़ामयाबी हासिल कर ली फ्रांस वालों ने. उन्होंने ‘काठ के घोड़े’ में अब लोहे के पहिए लगा दिए. फ्रेम भी लोहे का.
अपनी इस नई ईज़ाद को उन्होंने ‘वेलॉसिपीड’ का नाम दिया. इसका आगे का पहिया उन्होंने थोड़ा बड़ा भी कर दिया था. साथ ही बड़े पैमाने पर इसे बनाकर बेचना शुरू कर दिया. लेकिन इसमें एक बड़ी दिक्क़त थी कि इसे रोकने का कोई बंदोबस्त नहीं था. अक़्सर ‘वेलॉसिपीड’ सवार गिर जाया करते थे. लोहे के फ्रेम की वज़ह से उन्हें चोट वग़ैरह भी आ जाती. इसीलिए इसका नाम अब लोगों की ज़ुबान पर ‘हाड़-तोड़’ (बोन-शेकर) ज़्यादा चढ़ गया. इसी बीच 1868-69 के आसपास इसका एक और नाम चलन में आ गया, ‘बाइसाइकिल’. यानी ‘दो-चक्के’. क्योंकि अब तक इसमें मोटे तौर पर ‘दो चक्के’ ही सब कुछ हुआ करते थे. बाकी तो जो था वो ‘हाड़-तोड़’ ही था.
इसी बीच, यूजीन मेयर ने 1869 के आस-पास ही पहियों में तिल्लियां लगा दीं. फिर उन्होंने उसका अगला पहिया बहुत बड़ा कर दिया और पीछे वाला छोटा. अगले पहिए पर ही सीट और हत्था. उसी में पैडल. इसको कहा गया ‘पैनी फार्दिंग’. ये और ख़तरनाक हुई. उचककर इस पर चढ़ना होता था. और रोकने का तो कोई साधन ही नहीं. सीधे ज़मीन पर धड़ाम ही होना था. इसके बावज़ूद लोग इसे ख़रीद रहे थे. इसे देखते हुए ब्रिटेन के जेम्स स्टर्ली ने इस पर काफ़ी काम किया. अब तक हैंस रेनोल्ड नाम के एक ज़नाब ‘बाइसाइकिल’ के लिए लोहे की ख़ास चेन बना चुके थे.
लिहाज़ा, स्टर्ली ने साइकिल के अलग-अलग हिस्सों में सुधार किया. चेन लगाई. पैडल बीच में लगाए. पहिए बराबर किए. और हां, सबसे ज़रूरी. ब्रेक लगाया. ताकि हड्डियां तोड़े बिना उसे रोका जा सके. इसीलिए उन्हें आज के दौर की ‘साइकिल का जनक’ भी कहा जाने लगा. और फिर आए उनके भतीजे कैंप स्टर्ली, जिन्होंने पूरी तरह आज के जैसी साइकिल को बाज़ार में उतारा. इसी बीच, 1888 के क़रीब आयरलैंड के जॉन बॉएड डनलप ने साइकिल के लिए हवा भरे हुए रबर के टायर बना दिए. सो, वे भी इसमें इस्तेमाल होने लगे और सफ़र कुछ ज़्यादा आसान हो गया अब.
इसके बाद तो ये आविष्कार ऐसा फुर्र हुआ कि बताते हैं, 1895 तक ब्रिटेन में आठ लाख से ज़्यादा ‘बाइसाइकिल’ सड़कों पर आ चुकी थीं. जबकि 1899 तक अमेरिका में इनकी तादाद 11 लाख से अधिक हो चुकी थी, क्योंकि काम तो वहां भी बड़े पैमाने में हुआ ही था. जहां तक हिंदुस्तान की बात है तो यहां पहली साइकिल बनी 1942 में, ‘हिंद साइकिल’, मुंबई से. इससे पहले 1910 के आस-पास से साइकिलें ब्रिटेन से बनी-बनाई मंगवाई जाती थीं. हालांकि बनी हुई साइकिलें मंगवाने का सिलसिला उसके बाद भी कुछ सालों तक जारी रहा. बताते हैं, 1950 में क़रीब दो लाख साइकिलें ब्रिटेन से ऐसी ही मंगवाई गई थीं. लेकिन फिर धीरे-धीरे अपनी मांग और ज़रूरत के हिसाब से यहीं हिन्दुस्तान में पर्याप्त बनने लगीं और बाहर से मंगवाने की ज़रूरत ख़त्म हो गई.
आज आलम ये है पूरी दुनिया में लोग एक-दूसरे को साइकिल-सवारी की नसीहत दिया करते हैं. नीदरलैंड्स तो ऐसा मुल्क है, जहां के प्रधानमंत्री भी साइकिल से ही आते-जाते हैं. वहां 15 साल से ऊपर के हर शख़्स के पास साइकिल है. आंकड़े बताते हैं, आज बड़ी आरामदायक सवारियों से सफर करने वाली दुनिया में भी 100 करोड़ से ज़्यादा साइकिलें मौज़ूद हैं और नई जुड़ रही हैं. यानी हिन्दुस्तान, चीन की आबादी से थोड़ा ही कुछ कम. मतलब यूं कि साइकिल एक बार जो चलना शुरू हुई तो चलती ही जा रही है. और आगे भी इसकी चाल पर ब्रेक लगने की उम्मीद न के बराबर ही है. क्योंकि अब सबको धरती, पर्यावरण बचाने की फ़िक्र जो खाए जा रही है.
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FIRST PUBLISHED : June 07, 2022, 12:23 IST