नेपाल का भविष्य किसके हाथों में?
✍️ मयंक तिवारी
ब्यूरो चीफ, एन टीवी टाइम
अयोध्या
नेपाल में यह मान लिया गया था कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के इस्तीफ़े के बाद हालात सामान्य हो जाएंगे। लेकिन सच्चाई इसके उलट निकली। असली खेल तो अब शुरू हुआ है और असली लड़ाई अभी बाकी है।
शुरुआत हुई Gen Z आंदोलन से। ये युवा सिर्फ भ्रष्टाचार और सोशल मीडिया बैन के खिलाफ सड़कों पर उतरे थे। लेकिन उनकी भीड़ में अचानक घुस आईं हथियारबंद परछाइयाँ। नतीजा—अस्पताल जलते हैं, डाटा सेंटर राख हो जाते हैं, स्कूल और होटल खाक हो जाते हैं। यहां तक कि प्रदर्शनकारियों को भी गोलियों से भून दिया जाता है। सवाल उठता है कि आखिर ये राक्षस कौन थे?
फिर तारीख आती है 20 अगस्त 2025।
माओवादी नेता प्रचंड जेल में बंद रवि लामिछाने से मिलने जाते हैं। कुछ ही समय बाद विस्फोटक घटनाक्रम होता है—तीन जेलों में एक साथ बगावत होती है और 1500 से भी ज़्यादा कैदी फरार हो जाते हैं। उनमें स्वयं रवि लामिछाने भी शामिल हैं। अब ये कैदी बंदूकें थामे सड़कों पर उतर आए हैं और मासूमों को मौत की नींद सुला रहे हैं।
हालात काबू से बाहर होते देख नेपाल आर्मी को पूरे देश पर नियंत्रण करना पड़ा। सेना ने साफ कहा—“अपना प्रतिनिधि भेजो जो जनता की आवाज़ बन सके।”
यहीं से उभरता है एक नया नाम—बालेन, 35 वर्षीय निर्दलीय नेता। लोग उसे ईमानदारी और उम्मीद का प्रतीक मानते हैं। लेकिन सवाल है कि क्या मासूम ईमानदारी इस अराजकता को रोक पाएगी?
और कहानी यहीं खत्म नहीं होती।
मंच पर लौट आता है एक पुराना खिलाड़ी—राजा ज्ञानेंद्र। वही राजा, जो नेपाल को फिर से हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना देखता है।
अब देश तीन टुकड़ों में बँटा नज़र आता है।
कुछ चिल्लाते हैं—“रवि लामिछाने को प्रधानमंत्री बनाओ।”
कुछ कहते हैं—“बालेन ही असली उम्मीद है।”
और परछाइयों से राजा ज्ञानेंद्र मुस्कुराता है।
तो आखिर नेपाल का भविष्य किसके हाथों में होगा?
क्या यह देश लोकतंत्र की नई सुबह देखेगा, या फिर अराजकता और सत्ता संघर्ष की अंधेरी रात में डूब जाएगा? यही सवाल आज नेपाल ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया के सामने खड़ा है।


