भगोरिया में पारंपरिक वेशभूषा में पहुंची युवतियां।
भगोरिया मेला मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह मेला आदिवासी समुदाय की सांस्कृतिक विरासत को प्रदर्शित करता है। भगोरिया मेले में ग्रामीण पारंपरिक नृत्य, संगीत और स्थानीय भोजन का आनंद ले रहे हैं। यह मेला हर साल होली से पहले आयोजित किया जाता है।
आदिवासी अंचल में प्रमुख सांस्कृतिक पर्व भगोरियों मेलों की शुरुआत शुक्रवार से हो गई। अब 13 मार्च तक अंचल सांस्कृतिक उत्सव के उल्लास में डूबा रहेगा। पहले दिन झाबुआ-आलीराजपुर जिले के वालपुर, कट्ठीवाड़ा, उदयगढ़, बड़ी, भगोर, बेकल्दा, मांडली व कालीदेवी में मेले लगे।
हजारों की संख्या में लोग इनमें मांदल की थाप और बांसुरी की धुन पर पारंपरिक नृत्य करते हुए निकले। युवतियां भी पारंपरिक गेर भगोरिया का सबसे बड़ा आकर्षण रही। बड़ी संख्या में बाहर से भी लोग भगोरिया उत्सव में शामिल होने के लिए आए।

शनिवार को झाबुआ-आलीराजपुर जिले में नानपुर, उमराली, राणापुर, मेघनगर, बामनिया, झकनावदा व बलेड़ी में भगोरिया मेला लगेगा। इसके अलावा धार, बड़वानी, खरगोन, खंडवा में भी मेलों की धूम रहेगी। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के एक दिन पूर्व शुरू हुए मेलों में आधुनिकता भी दिखी।
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भगोरिया को लेकर अलग-अलग मान्यताएं हैं। वरिष्ठ लेखक आरएस त्रिवेदी ने बताया कि भगोर नामक गांव माताजी के श्राप से उजड़ गया था जो बाद में वापस बसा। इस खुशी में वहां वार्षिक मेला आयोजित किया गया।
बाद में इस तरह के मेले अन्य कस्बों में भी लगने लगे, चूंकि यह परंपरा भगोर की तर्ज पर शुरू हुई थी, इसलिए इसका नाम भगोरिया पड़ गया। एक अन्य प्रथा के अनुसार होली के सात दिन पहले आने वाले हाट प्राचीनकाल में गुलालिया हाट कहे जाते थे।
भगोरिया हाट कहने लगे
गुलालिया हाट ही बाद में भगोरिया हाट कहे जाने लगे। सभी ग्रामीण हाट बाजार स्थल पर ही एकत्रित हो जाते। गुलाल उड़ती और उल्लास भरा वातावरण छा जाता।
रियासत काल में राजा व जागीरदार भी इसमें शामिल होते थे। वे होली की गोट यानी पुरस्कार स्वरूप कुछ नगदी व वस्तु अपनी प्रजा के बीच बांटते थे। अब यह भूमिका जन प्रतिनिधियों के हिस्से में आ गई है।